शनिवार, 8 नवंबर 2014

स्वपन

सपनों की दुनिया में मैं
अकेला रात भर जागता
गीत गाता रहा हूँ।
जी । जीत की खुशीयां
मनाता रहा हूँ।

जीत जो नींद पे हमको मिली है
उस उपलक्ष्य में
खुशियां मनाता रहा हूँ।
जिंदगी से थका हुआ ,
लेकिन हर्षाता रहा हूँ।

रात जो खींच देती है
हमारे दुखों पर परदा
उसी परदे की ओट से
नाराज मैं जयजयकार
सुखों की लगाता रहा हूँ।

तृप्ति मिलती है
ऐसी की बस मत पूछिए।
चेहरे की चमक को भी
चैन से गीतों में संगीत की
भांति मिलाता रहा हूँ।

बस कभी कभी कुछ
अजीब डर लगता है कि
कहीं जग ना जाउँ
इसीलिए चादर को
सर पे सरकाता रहा हूँ।

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