रविवार, 1 मार्च 2015

मैं लिखुंगा

मैं लिखुंगा वो सारे अहसासों को
जो बंद कमरों के चारदीवारी में कटी है
उन सभी शुष्क लम्ही जज्बातो को
जो छत के धीमे पंखो को तकते कटी है
उस छोटी सी धुंधली सी खिडकी को
जिसे खोल दुनिया समेटा करता था मैं
एक सफेद और एक काले कबूतर को
जो दिन भर झूम झूम गूटरगू फाग गाते
उस दुर बहुत दूर खडी पानी टंकी को
जिसे घंटो बिना मतलब ताका है मैंने
उस मस्जिद की अजनबी अजान का
जो मेरा न हो के भी मेरा बन गया था
उन दिन के सपनों को जो देखे थे मेरे
खुली हुई विरान सफेद निगाहों ने
उस कलम और सफेद कागज का
जो काले हुए मेरे बेतरतीब हाथों से
मैं लिखुंगा वो सारे अहसासों को
जो मुझे मजबूर करती थी कविता को