शुक्रवार, 30 मई 2014

मुझे बहने दो

मत रोको मुझको आज
मुझे  बहने दो
जीवन के संताप 
मुझे कहने दो

मै रोता हूँ तो
आज मुझे रोने दो
अश्रूरक्त निर्मम
भू पर बहने दो

तुम देखो मत करो
मेरी प्रतीक्षा
बस मुझको बन निर्झर
निज वेग सहन करने दो

मै जलता हूँ तो
आज मुझे जलने दो
जीवन का ताप
मुझे सहने दो

मत हाथ लगाओ
जर्जर घर को
इसके स्तंभों को
भार ग्रहण करने दो

मुझको देखो मत तुम
मुझ जैसे लोगों को
दुनिया की रंगत
आज दर्श करने दो

सुन चुके बहुत  हम गान तेरे
पर आज मुझे  तुम
मेरे कर्कश  संगीत
मुझे श्रवन करने दो

बहुत सहज थे कष्ट मिले जो
छण भर के
पर आज विरल के शीर्ष
कष्ट वहन करने दो

मत रोको मुझको आज
मुझे  बहने दो
जीवन के संताप 
मुझे कहने दो
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आदर्श पराशर

मेरी बात सुनो


मेरी बात सुनो  नहीं तो,
दिल्ली के जंतर मंतर पर
मैं भी धरने पर बैठूँगा
फिर आना भीर इकठ्ठी करके

मुझे चाहिए और नहीं कुछ
बस मेरी तुम बात सुनो
मुझे मेरी संस्कृति लौटा दो
बाकी सब तुम खुद ही रख लो

तुम भारत को भारत रहने दो
पश्चिम के ना पैरोकार बनो
मुझे मेरी गंगा लौटा दो
बाकी सब तुम खुद ही रख लो

तुम चाहो तो यह कुरता भी ले लो
कुछ और कहो तो दे दुंगा
बस मेरी बहनों की साडी मत छुना
बाकी सब तुम खुद ही रख लो

तुम भूखे हो तो बोलो ना
मैं अपनी थाली दे देता हूँ
पर जिस्मानी भुख मिटाने को
तुम अपनी आँख उठाना मत

देखो मैं चुप रहता हूँ
बस मेरी मर्यादा का ख्याल रहे
मुझको बस मुझको दे दो
बाकी सब तुम खुद ही रख लो

मेरी बात नहीं सुनी तो
नहीं सुनो
पर चंचल मेरी कविता को पढ कर
चुप बैठोगे यह ठीक नहीं

फिर
दिल्ली के जंतर मंतर पर
मैं भी धरने पर बैठूँगा
फिर आना भीर इकठ्ठी करके
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आदर्श पराशर

रविवार, 25 मई 2014

हो प्रतित कितना भी सुंदर


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कितने भी हम रंग ले खुद को
मंहगी महंगी रोली से
पर चंचल मन कहीं टिके अगर तो
केवल प्रियतम की सूरत कोरी पे

हो प्रतित कितना भी सुंदर
कलिपत जो वह जीवन नभ है
सुख मिले अगर तो मिले मगर
जो जीवन निज धाम सरल है

जब तक जय हो ,
पर हो माया  से ग्रस्त अगर,
कैसे फिर हो सकता है
अंतरमन का तेज प्रखर

तम हो प्रतित कितना भी शक्तिमान
रक्त भरित दो आखों  से
पर कब टिक  सकता है आखिर
शोभित सरल शोणित निज आंखो पे
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द्वारा
आदर्श पराशर

मंगलवार, 13 मई 2014

मैं कौन हूं ?

मैं कौन  हूं ?
पूछता हर रोज  हूं,
खूद से पर ;
कभी मिला जवाब नहीं।
कि,
मैं कौन  हूं ?
चिंगारी !
जिसे जलाया गया है।
पर ,
मैं कौन  हूं ?
जल!
जिसे बहना सिखाया गया है।
पर,
मैं कौन  हूं ?
गीत !
जिसे गाया गया है ।
पर ,
मैं कौन  हूं ?
बाग !
जिसको सजाया गया है।
पर,
मैं कौन  हूं ?
देवता !
मंदिर में जिसे बसाया गया है।
पर ,
मैं कौन  हूं ?
स्वपन!
जिसको निंद  से चुराया गया है।
पर ,
मैं कौन  हूं ?
फूल !
जिसको केश से लगाया गया है ।
पर,
मैं कौन  हूं ?
सवाल!
जो सैंकड़ों बार दुहराया गया है।
पर,
मैं कौन  हूं ?
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द्वारा
आदर्श पराशर

सोमवार, 12 मई 2014

मेरी खुद  की कविता

मेरी खुद  की कविता
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अनंत दूर विरल में,
खरे दो स्तंभ नीरव शांत।
एक लाल बंगला,
जो हर दिन खरा रहता  है;
उसी जगह अविचलित।
दूर स्तंभों के ऊपर से,
उड़कर एक चिरिया;
बैठ जाती उसके मीनारों पे।
पास में ही जब उरती है,
तो ऐसा लगता है मानो,
इस अखिल विश्व  में,
उसकी उडान अनंत है।
और फिर वह उर कर ,
ऊंचे स्तंभ के शीर्ष पर बैठे,
निहारती है उस बंगले को।
जो अब भी शांत ,
यूं ही खरा कर रहा है इंतजार;
उस नन्ही सी चिडिया का।
जो उस से  कहीं ऊपर ,
एक शिखर पर है,
और ऊसकी नजरें;
अनंत दूर विरल में हैं।
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द्वारा-
आदर्श पराशर