गुरुवार, 17 मार्च 2016

दिवारों दर पे छपी ताहिर

दिवारों दर पे छपी ताहिर
करती मुक्कमल बयान है
कि मजबूरियत की गुलामी पर
लाख रुपया ईनाम है

शबे बारात की मानिंद है
खामोशी उजाले में
शमां की शोख अदाएं
संजीदगी का एहतराम है

गुलामी में हुई परवरिश
ये सर का निशान है
सजायाफ्ता है
उसे मौत का ईनाम है

गुरूर , शोख, अदबी
तुझे शमशेर करते हैं
वाह शहर की हर गली में
तेरा दुकान है

कब तलक शबनम की बूंदें
रेत को सींचे
जंजीर तोड देती है जमाना
मुझको गुमान है

मैं पैरों तले कर दूँ
आबाद गुलशन को
बस ये तेरे सलीके का
इंतकाम है

द्वारा
आदर्श पराशर