रविवार, 9 नवंबर 2014

किश्त

मुस्तकबिल हो किसी का,
पर माजी कलम की है।
कफन हो किसी का ,
पर दामन वतन की है।
नमक का हक अदा करते,
वो हिंदू हो या मुसलमां।
जरूरत है तो बस,
बाकी अमन की है।
कितनी भी मंहगी हो जाये,
फूल मगर ।
बहार है तो है,
पर चमन की है।
सालों की सजा काटे,
जो है पाक मगर ।
मुकद्दर मौत तो हिस्से,
में पापी की ही है।
चल रहा हो भले ही,
महफिल में लौंडा नाच मगर।
महफिल तो हमेशा से ही,
शाकी की ही है।
करे लाख छीछालेदर ,
हलकू नौटंकी में।
कीमत लाखों मे ,
मगर हाथी की ही है।

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