शनिवार, 15 नवंबर 2014

रात में दुनिया

सर्दी की एक ठिठुरती रात में 
अधनंगी अंधेरी सडक पर
सरसराती एक कार
काली स्याह
जैसे अपने कर्मों पर
खुद ही कालिख लपेटे
अजीब सुर में घनघनाती
स्ट्रीट लाइट की पोलो को
निरंतर पीछे धकेलती ।
कहीं से आ रही है।
अंधेरे में बस उसकी
परछाई ही दिख रही है
आकर सडक किनारे
घने पेडों के नीचे रूकती है।
और एक जनानी परछाई अपने
सर और जिस्म को चादर में
छुपाते पास के घर में
तेज कदमों से घुस जाती है।
उस परछाई के गौण होते ही
कार फिर से चल पडती है
और अंधेरे में कहीं छुप जाती है
इधर जिदंगी धीरे धीरे
गर्म हो रही है।
सुरज निकलने को है।
सुबह उसी घर से
मनमोहक और सुरीली
कृष्ण आरती की धुन आ रही है।
अब दिन हो गया है।
स्ट्रीट लाइटें बंद हो चुकी है
कोई उसकी तरफ नही देखता
वह बस रात की कालिख
साफ करेगी दिनभर 
आज भी और कल भी।

वाटर फिल्टर

सुनियेगा ,, अहं अहं जरा गौर फरमाईयेगा
हाँ । ध्यान रहे ,बीच में कहीं ना जाइयेगा।

अरे भाई साहब आप कौन हैं?
और इस तरह जज्बात में क्या कह रहे हैं।

हे भगवान ,आपने मुझे मुझे नहीं पहचाना
खैर जाइये आप का कुछ नहीं हो सकता

भाई साहब , ज्यादा भाव मत खाइये
और सीधे सीधे बताइए कौन चाहिए ?

कोई बात नहीं थोडा कष्ट उठायेंगे
और मटके से जरा पानी पिलायेंगे

लिजिए और
कृपया करके जल्दी पिजिये

मैडम भडकती क्यूँ है
और इतनी जल्दी सरकती क्यूँ है

देखिये मानिए बात और फौरन निकल
जाइये सर पर रखकर लात

सुनिये जरा मौन रखिए
और इस कदर ना सर पटकिए

देखिए अभी सास बहू वाला सिरियल
चल रहा है जो कहना है जल्दी कहिए।

आप सिरियल देख रही है
इधर आपका बच्चा जहर पी रहा है

क्या बक रहे हैं
आप पगला गये हैं क्या

जी सच कह रहा हूँ
आपके पानी में जीवाणु है कीटाणु है।

अरे बाप रे ये क्या हो गया
अब मैं क्या करूं।

कुछ नही घर में लगाइये वाटर फिल्टर
और देखती रहिये सास बहू का सिरियल

पर भाई साहब आपके
फिल्टर मे क्या है

मैडम क्या नहीं है
आर वो ,जी डी ,पि एफ ,सब कुछ

ये तो कमाल है वाकई बेमिसाल है
रूपया कितना लगता है

अरे नहीं मैडम ये तो बहुत सस्ता है
मात्र रूपये  लगेगें सात हजार

चलिए अब  लगा दिजिये
और सबकुछ ठीक से समझा दिजिये

लिजिये हो गया ये तैयार
अब लिजिए ये चम्मच सेट साथ में इनाम
और हाँ  सहेलियों को जरूर बताइयेगा
और मागें तो मेरा नंबर उपलब्ध कराईयेगा
हर कनेक्शन पर आपको मिलेगा प्यारा सा उपहार ,क्यों अच्छा है ना हमारा व्यापार

 

कविता

होश खो मदहोश बैठे
मैं  और मेरी कविता।
मैं कविताओं की
पैदावार बढा रहा हूँ।
क्यूँकि
मैं एक कविता लिख रहा हूँ ।
एक कविता गा रहा हूं।
एक कविता जी रहा हूँ।
एक कविता खा रहा हूँ।

जल

जल की गति को रोकना क्या बांध से
पथ निरंतर उसे चलना पडेगा
पांव में चुभ रहे हो कांटे मगर
कष्ट यह उसको सदा सहना पडेगा

रूक पडे जो देख तिखी ढलान को
है नहीं यह भाग्य में तेरे लिखा
कर सके जो मौन सुंदर कल्पना
वो कला है बस कवि को ही मिला

है तेरा जीवन बहती मझधार में
छोडकर जिंदा तू रह सकता नहीं
गा सके जो गीत सुंदर तितलियाँ
वेश वो तू कभी धर सकता नहीं है

है धरा यह बोझ से भारी  अगर
वेग गहरी ढलानों का तूझे सहना नहीं है
रो पडे जो जिंदगी की फलसफा पर
रोग वो तुझको कभी लगना नहीं है

जानता है  कण कण में हैं तु मिला
है धरा पर अवतरित एक  ईश सा
मौत और जीवन तुम्हारा फैसला
है बहा सारी धरा पर सुनहरे गीत सा

बिन माँ का बच्चा

घुप्प अंधेरे में वह चमका
मन का सीधा और सच्चा
हरपल देखो प्यार लुटाता
वह बिन माँ का बच्चा

ममता से थी झोली खाली
खाना पडता जूठा  कच्चा
रात अंधेरे से डरता था
वह बिन माँ का बच्चा

बाप उसका नशे का आदी
देखभाल करती थी दादी
दिखने में  गुड्डे से अच्छा
वह बिन माँ का बच्चा

नहीं मिला उसे कभी खिलौना
गद्दी और  रंगीन बिछौना
फिर भी हंसता खुब  हंसाता
वह बिन माँ का बच्चा

दुनिया में वह खो जाता है
चुपके चुपके रो जाता है
फिर भी सिना ताने देखो
वह बिन माँ का बच्चा

दुख से कभी न हारा है वह
बुढे बाबा का सहारा है वह
आसमान का तारा है वह
वह बिन माँ का बच्चा

कोई समझ न पाया उसको
साथ नहीं है साया उसको
चांद सा रौशन आसमान में
वह बिन माँ का बच्चा

देख सको तो देखो उसको
सिख सको तो सिखो उससे
जीवन से कभी न हारा है
वह बिन माँ का बच्चा

द्वारा
आदर्श पराशर
16/11/2014

 

शब्द के आसूं

गा नहीं सकते प्रणय के गाण तो
विरह के गीत गाना कब मना है
ला नहीं सकते सहज मुस्कान तो
आंख से आसूं बहाना कब मना है

है नहीं सुलभ तेरा माझी अगर तो
सपनों में मुकद्दर बनाना कब मना है
रह नहीं सकते ऊंचे मुंडेरों पर तो
नदीतट पर घर बसाना कब मना है

रात हो काली घोर अंधेर  लेकिन
भोर सुरज का चमकना कब मना है
हो छितिज पर छाई काली स्याही
दिप जेहन में जलाना कब मना है

भेदती हो जिस्म को कांटे अगर
फूल बालों में लगाना कब मना है
कट गयी हो प्रियतमा से डोर लेकिन
ला मकां में मूरत सजाना कब मना है

है नही बाहों में तेरे नील गगन बंधु
नौरंगी पतंगों को उडाना कब मना है
है नहीं मुमकिन  उड़ना हंसना गाना
शब्दो के आसूं बहाना कब मना है

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

मस्तक नहीं झुकेगा।

वन तिमिर में छोडकर मुरदा हमे,
कमर कसकर वो भागने वालो  ।
खोलो नयन विश्राम से देखो जरा,
वनफूलो की भांति अब भी जिंदा हूँ।

राज गहरे है धंसे गहरे हृदय में   ।
पर अधर फूल सी मुस्का रही है।
जल रहे हैं दिप  धू धू कर  निरंतर।
पर दरारों से सिसकती आ रही है ।

झाड दो तुम  धूल को तलवार से    ।
छा जाओ धरा के  शीर्ष पर घटा से ।
करा दो रंग रोगन फिर से बंदीगृह का।
हो सके तो व्योम पर भी पहरा लगा दो।

हृदय को हांकती धीमे धीमे शीतल हवा।
सहिष्णुता सर पे अभिशाप को है टांकती।
जलरही है आग ठंडी पडी सोयी चिता में।
युगों से चीखती निर्दयी आह है गगन में।

भा रहा है तुम्हें सुप्रभाती गंगा का किनारा ।
पर धरा पर भटकर कोण तुझको ना दिखे।
छा रही है कली पे, भंवर वैभव सिंगार सी।
पर मरघटों में गूंजी हुंकार तुझको ना दिखे।

जग रहे हैं शोणित दर्द सिने में अंगार लिए।
उठ रही भुजायें दोधारी नग्न तलवार लिए।
सज रही है सुख समाधि गौरव घूंघट काढे।
खुल रही नयन चिंगारी और ज्वाला लिए।

तोड सको तो वर्षो से टुटे खंजर तोडो तुम।
मोड सको तो बहते सिंधु जल को मोडो तुम।
माथे पे रंजीत खून का दाग पर नहीं मिटेगा।
गर्व से खडा हिमालय तुमसे नहीं झुकेगा।

बहुत रो लिए सिंह वन में दहाडने वाले।
खुन से सन कर भी ना सिसकारने वाले।
खोल चुके हैं पैरों से निष्ठुर जंजीरों को।
पांडु पुत्र अब प्रलय से नाता जोड चुके हैं।

अब भूखंडों को खुली दिशायें मिल जायेंगी।
अब यज्ञकूंड मे जल उठेगी फिर से ज्वाला ।
अब गंगा को मिल जायेंगी फिर  टूटी कश्ती।
टुटे खंडर को फिर अपना इतिहास  मिलेगा।

जल उठेगीं फिर से प्राचीर की मशालें।
वृहत नभ से झरेगी सुरज की सुकिरण । 
तरुण प्रणय कलरव फिर खिल उठेगा  ।
गौरवशाली मानव अब नहीं झुकेगा।

द्वारा
आदर्श पराशर
14/10/14

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

क्या करे?


भूख जब तलक न आए
पेट मे खुदबुद ना मचाये
मेज पर थाली सजाये
आदमी फिर क्या करे ?

रात की आबोहवा में
बह रही शीतल पवन हो
सर टिकाने के सिवा पर
मानव करे तो क्या करे ? 

जल रहे दिप धू धू कर भयंकर
महलों की रोशनदान से
झाँक कर, टिमटिमाते
तारें करें तो क्या करे।

फट चुकी चुनर निरंतर
मौन यौवन की तन पर
खिलखिलाते फूल का
कांटे करे तो क्या करे?

झुक गई उस डाल का
माचिस की बारूदी भाल का
सिक रही उन गाल का
अंगारे करे तो क्या करे ?

सिता के  जनानी जज्बात का
राम के लज्जा और माथ का 
सूपनखा के ओछी बात का
रावण करे तो क्या करे?

अंगेजो की धिनौनी बिसात का
नये लडको की टेढी जात का 
भूख के अहसास का
दलित कविता करे तो क्या करे?

By
Adarsh Prashar 

रविवार, 9 नवंबर 2014

किश्त

मुस्तकबिल हो किसी का,
पर माजी कलम की है।
कफन हो किसी का ,
पर दामन वतन की है।
नमक का हक अदा करते,
वो हिंदू हो या मुसलमां।
जरूरत है तो बस,
बाकी अमन की है।
कितनी भी मंहगी हो जाये,
फूल मगर ।
बहार है तो है,
पर चमन की है।
सालों की सजा काटे,
जो है पाक मगर ।
मुकद्दर मौत तो हिस्से,
में पापी की ही है।
चल रहा हो भले ही,
महफिल में लौंडा नाच मगर।
महफिल तो हमेशा से ही,
शाकी की ही है।
करे लाख छीछालेदर ,
हलकू नौटंकी में।
कीमत लाखों मे ,
मगर हाथी की ही है।

दुनिया

हो रही है सभा
दिन दुखियारो के यहाँ।
रो रही है मुनिया
इन कछारो के यहाँ।
जा रहा है ,
कल सुबह नत्थू अंधेरे ,
पास के उस गांव में।
है जहाँ से बोली आई ,
मुनिया के दिल की है।
दाम का निर्णय करेगें,
गांव के सब लोग मिलकर।
पास में मुनिया मतारी ,
अजब मुश्किल में है।
सोचिए कैसी दशा होगी ,
मुनिया बेचारी की अभी।
झोंकी जा रही जो,
अंधेरे बिल में है।
भीड में छुपकर जो
बैठा है चंदर,
ओसारे के पास।
बिनती और सुधा उसकी,
बसती मुनिया के दिल में है।
है दशा दशरथ की ,
मुनिया के बाप की।
किस कदर खामोश वह
भडी महफिल में है।
हर रोज रोते होंगे
राम अपने राज्य को।
दिन और दुखियों की सीता।
रावण की झोली में है।



शनिवार, 8 नवंबर 2014

स्वपन

सपनों की दुनिया में मैं
अकेला रात भर जागता
गीत गाता रहा हूँ।
जी । जीत की खुशीयां
मनाता रहा हूँ।

जीत जो नींद पे हमको मिली है
उस उपलक्ष्य में
खुशियां मनाता रहा हूँ।
जिंदगी से थका हुआ ,
लेकिन हर्षाता रहा हूँ।

रात जो खींच देती है
हमारे दुखों पर परदा
उसी परदे की ओट से
नाराज मैं जयजयकार
सुखों की लगाता रहा हूँ।

तृप्ति मिलती है
ऐसी की बस मत पूछिए।
चेहरे की चमक को भी
चैन से गीतों में संगीत की
भांति मिलाता रहा हूँ।

बस कभी कभी कुछ
अजीब डर लगता है कि
कहीं जग ना जाउँ
इसीलिए चादर को
सर पे सरकाता रहा हूँ।

गुरुवार, 6 नवंबर 2014

पंडित जी

अरे बाप रे सुना है प्यार में झगडे
प्यार की निशानी है।
मेरे परोस में इसकी
जीती जागती कहानी है।

सुबह की चाय के झगडे मे
प्यार की कुछ ऐसी हवा चलती है।
बिस्कुट प्लेट में मरद के भांती स्थिर ।
चाय  औरत की तरह उबलती  है।

जब खाते हैं पंडित जी तो सर पे
पंखे के बदले पंडिताइन रहती है।
शायद इसी कारण पंडित जी पे
छाई दुबली पतली चिकनाई रहती है।

किराना दुकान हो या हो
महतो की सब्जी का ठेला।
हर चौक चौराहे  पर चलता  है
पंडिताइन का खेला।

पंडित बेचारे क्या करें
रहते हैं रेलमपेल में
क्योकि ठेलती आ रही है
सदियों से पंडिताइन अपने खेल से ।

एक दिन पंडित ने सोचा
आज चुप रहना नहीं है।
संवैधानिक चुनौती को
अब सहना नहीं है

सामने से आ गई
पंडिताइन लहराते हुए।
सहमे पंडित ने सोचा
अब कुछ कहना नहीं है।

देख कर पंडित जी को
आता है एक ख्याल।
बंधा है बैल एक बेबस
खूंटे में कसाई के ।
 

बुधवार, 5 नवंबर 2014

बटखडा

जो अपनी बात पर
खडा होता है।
कहीं ना कहीं
सलीबों पे टंगा होता है।

जात मजदूर की
पुछी नही जाती।
वो तराजू पर 
बस बटखडा होता है।

चाहत में कहा किसी का
भला होता है।
वो बस समाज का
मसखरा होता है।

मयस्सर रात को नहीं
भोजन की थाली जिसे
वो ही मंदिरों की
द्वार पर खडा होता है।

लिखी जाती हैं जिसके
कारण हजारों लेख पन्नो पर
वो विचार भी
कही अधमरा होता है।

दौलतराम की दिवाली

दौलतराम के आंगन मे आज
दिवाली मनाई जा रही है।
हर दिवार को देखो जैसे
अंधेरी रात में ईठलाई जा रही है ।

सजा है चांद सा रौशन दिया
हर ओर।
हर रंग और कुचे को
दौलत में मिलाई जा रही है।

जरा सी देर में खनकेगा
हर मेज पे सिक्का।
अभी दौलतराम की नवेली दुल्हन
नीलम से सजाई जा रही है ।

जो वो कोने में बैठा है,
फेंकू कुछ देर से।
वो हनुमान है
नाटक में ईन कसाई के।

जलेगी आग जो लंका में
धू धू कर
बांधी जा रही हे पूंछ में
इस मिताई के।

मिलेगा जुट का कपडा
नत्थू और कुशेसर को।
अभी रावण के हाथों ही
लंका जलाई जा रही है ।

वो जो डब्बा बंद है तोहफा
रखा कोने में तिपाई पे
चमकता खून है उसपे
पलटन की कमाई के

रहेगा रात भर जारी
जो नाटक चल रहा है।
सुबह फेंकू के हिस्से में
आयेगा भोज का जूठन ।

ये किस्मत है
हमारे थारू ओर तराई के
जलेंगे राम भी आग में
इन कसाई  के ।

योजना

जख्म दिल के उभर आते हैं
जब कोई चोट खाता है।
दो आसूं टपकते है
और गालों पर सुख जाता है।

कहो करें कोई तो,
फिर क्या करे?
आसूं पोछे कि बस
उन्हीं से रूठ जाये।

सितम सहने की आदत हो
तो कोई सब्र करे।
इंसाफ चाहे तो
तो क्या कोई सब्र करे।

अजीब होते है
तुगलकी फरमान जारी हररोज
कि कोई चाहे तो चाहे
पर सब्र करे

मैं चाहता हूं
एक स्वपन बनूँ
कोई चाहे तो  मुझे करे स्वीकार
कोई चाहे तो फिर सब्र करे।

रंग घूलते है
जिद जल मे मिलने की
अपना समायोजन
कोई योजना नहीं होती ।

किस्मत

यूँ ही नहीं लिखी जाती
गोरे पन्नो पर सुनहरी स्याही से
रंग निचोड़े जाते है
कली और फुल से 

फूल को मिलता है
तो क्या मिलता है
कहानी भी लिखी जाती है
उसी की खून से

कब तलक बेजार हो
सिता रोती रहे ।
हर कलम इतिहास में
बस औजार होता है।

लिखी जाती है जवानो के
मजार पर अमर शहीद मगर
खामोशी ही
उसका फलसफा होता है

तमन्ना होती है हर कब्र की
बनने का ताजमहल
पर सब के नसीब में
कहाँ शाहजहां होता है