रविवार, 14 दिसंबर 2014

बचपन

तमन्नाओं की छत पर ;
अधनंगी खडी बचपन !
सुरज की किरणों सी;
बिखरी फैली हुई बचपन!
हजारों स्वपन सीने में;
दबाये उंघती बचपन!
फूलों मे भंवरे की तरह;
महक को सूंघती बचपन!
नदी की उमरती बाढ सी;
कवि की मचलती फाग सी;
पंतगो के गले में डोर डाले;
बेतरतीब खेलती बचपन!
जिसे की नींद कहती;
की तु लुटेरा है!
पर अंधेरी रात का;
वो सबेरा है!
चला अल्हड निशानी रेत के ;
सीने में छुपाये!
बहुत दूर बहुत दूर ;
परछाई सी खडी बचपन!
हरी रंगीन बहुत खूब;
अंगडाई तोडती बचपन!
धूल धूसरित सी परो से ;
तारो को छुते ,उडती ,
गिरती ,संभलती बचपन!

द्वारा
आदर्श पराशर
15/12 /2014