शनिवार, 15 नवंबर 2014

शब्द के आसूं

गा नहीं सकते प्रणय के गाण तो
विरह के गीत गाना कब मना है
ला नहीं सकते सहज मुस्कान तो
आंख से आसूं बहाना कब मना है

है नहीं सुलभ तेरा माझी अगर तो
सपनों में मुकद्दर बनाना कब मना है
रह नहीं सकते ऊंचे मुंडेरों पर तो
नदीतट पर घर बसाना कब मना है

रात हो काली घोर अंधेर  लेकिन
भोर सुरज का चमकना कब मना है
हो छितिज पर छाई काली स्याही
दिप जेहन में जलाना कब मना है

भेदती हो जिस्म को कांटे अगर
फूल बालों में लगाना कब मना है
कट गयी हो प्रियतमा से डोर लेकिन
ला मकां में मूरत सजाना कब मना है

है नही बाहों में तेरे नील गगन बंधु
नौरंगी पतंगों को उडाना कब मना है
है नहीं मुमकिन  उड़ना हंसना गाना
शब्दो के आसूं बहाना कब मना है

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