सोमवार, 1 अगस्त 2016

तक़दीर का फैसला

ना सनम करती है ना वतन करती है 

हमारे तक़दीर का फैसला वहम करती है

जो उकडी है हाथ की रेखाओं में किस्मत

वो तो बस वहम है , आँखों का साहब।

वरना क्या सही है और क्या गलत यहाँ

फैसला तो ज़माने की बस चलन करती है।

चला था मेहनत लगन से अपना तक़दीर बनाने

बंद आँखों से निश्छल सुनहरे स्वप्न सजाने ।

ये सब जीते जागते एहसास जो है न जनाब

ये सब आपकी खुशियों का बस हनन करती है।

कहाँ किसी को मिलता है बस इबादत से खुदा 

इबादत की पैरवी तो मुल्लो की रहम करती है।

ये यकीं ये तवस्सुर ये चाहत सब झूठ बात है।

तकदीर का फैसला तो बस कफ़न करती है।

©आदर्श





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