सोमवार, 1 अगस्त 2016

सलाखों में इंसान

सलाखों में इंसान

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इक चिड़िया अपने पंख खोले,

अनंत आकाश में उड़ रही थी।

तभी कहीं से आती है एक 

प्यारा सी चिड़िया उड़कर

और टकरा जाती है उससे

वह चिरिया गिर परती है 

पंख उलझने से नजर बिखरने से

और अगले ही पल।

बड़े बड़े  बे आकार से पत्थर

दीवारों से जुड़ती अनगिनत दीवारे

सीधी आरी और तिरछी 

कठोर लोहे की सलाखें

और उन मजबूत सलाखों से

झांकता सा चमकीला चाँद

बहुत दूर कभी हाथ ना आनेवाला

वो चमकीला सा पत्थर 

हाथ पैर सब सलामत 

चेहरे पे वही निर्विकार लकीरे

आँखों में आज भी पानी भरा सा

पर न जाने क्यों आँसू की एक बूंद नहीं

अपने ही ख्यालो से 

अपने पैर में जंजीर डालता है

बरी कठोर उस के दिल की रुदन

जिसकी सिसकियाँ कभी सुनाई नहीं देती

ज़माने से रुस्वाई का डर

जिसकी जड़ सतही हैं

खुद ही सवालो की तरह

अपने वजूद का उत्तर ढूंढता

सभी अरमानो का गला घोंट

इसी पछतावे से डर कर

अपने भाव व हृदय को कैद कर 

सड़ना चाहता है जेल की दीवारों में

वो हर दिन कैद है 

एक दिवार खुद की जोड़ी हुई

और एक दिवार ज़माने की

एक दिवार अपनी मासूमियत से खरी कर

और एक किस्मत से खडी की हुई

बंद आसमान व सलाखों से आती रौशनी

सब बेकार मालूम होती है जब 

वो हर दिन खुद को कैद करता है

एक मरा हुआ इंसान 

एक भुला और भटका हुआ इंसान

एक सपनो की भार से दबा हुआ इंसान

एक जमाने की आँख में गिरा हुआ इंसान

हजारो बीते हुए दिन से डरा हुआ इंसान

अपने खुद के बनाए घर में

वो जिन्दा परा हुआ इंसान

वो हर दिन कैद में है

सच में

मानो या न मानो

वो हर दिन कैद में है

अपने सपनो और जज्बातो की हत्या कर के

इसी गुनाह की सजा काटने के खातिर

ऊँची नीची निर्दयी और कठोर 

पत्थर और सलाखों में बंद

वो हर दिन कैद में है।

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©आदर्श पराशर

2016-07-16 00:54




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