गुरुवार, 25 सितंबर 2014

मुलजिम

झांक् कर है देखता
सडक के मुहाने से
अजीब रंज है
उसको जमाने से

है मुहल्ले का
वही मुलजिम वही हाकिम
दर बदर फिरता
वही पापी वही काफी

गुजरते वक्त से सिखा है
उसने चलना अंगारों पर
सभी कहते हैं उसको
कभी मय कभी शाकी

जमाना भुल जाता है
बडे शान से जिसको
उन्ही ठूंठो में बसती है
काफिर की निशानी 

फकत इक शौक ने
रक्खा है जिंदा उसे
निकल आयेगी कभी
मुर्दों की कहानी

द्वारा
आदर्श पराशर
25-09-2014

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