झांक् कर है देखता
सडक के मुहाने से
अजीब रंज है
उसको जमाने से
है मुहल्ले का
वही मुलजिम वही हाकिम
दर बदर फिरता
वही पापी वही काफी
गुजरते वक्त से सिखा है
उसने चलना अंगारों पर
सभी कहते हैं उसको
कभी मय कभी शाकी
जमाना भुल जाता है
बडे शान से जिसको
उन्ही ठूंठो में बसती है
काफिर की निशानी
फकत इक शौक ने
रक्खा है जिंदा उसे
निकल आयेगी कभी
मुर्दों की कहानी
द्वारा
आदर्श पराशर
25-09-2014
कोई टिप्पणी नहीं:
एक टिप्पणी भेजें
thanks ....