शुक्रवार, 29 अगस्त 2014

वो लडकी

तपती दोपहरी में, खेतो के बीचो बीच
सर पे बोझ उठाये,वो छोटी सी
प्यारी सी लडकी,भोली सी लडकी।
चेहरे पर अन्यत्र , पसीने की दो चार बूंदें
सर से होकर,नाकों से गुजर रही हैं।
चेहरे पर उसके,एक अजीब सी भंगिमा
भाव शुन्य, विरल, नीरव, सुनसान
और उधर ऊसकी माँ,
बकरियों को हांकती
धीमे धीमे गुनगुना रही है
सर पे उसके बेपनाह हसरतों का बोझ
जैसे अंधेरे मे निहारती हो उसकी आँखे
कैसी न्रिमिमोह ,जैसे शुन्य में डुब रही है
और
उधर वो लडकी कैसे
पैरों से मिट्टी लपेटती
धुप में जलती हुई उसकी मासूमियत
अनवरत , बोझ लादे सर पर
हंसती इठलाती,  मन को बहलाती
बेइंतहा खुशियों के इंतजार में,
पगडंडियों से चली जा रही है।
क्यों?
क्यों उसकी आँखे शुन्य है
क्यों ? उसकी आशायें मर सी गई है
क्यों ? उसकी बचपन बोझ तले दबी हुई है
क्यों?  

द्वारा
आदर्श पराशर

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