सोमवार, 4 अगस्त 2014

डर

जैसे
राह सुने तितलियों ने आंख मिचे
चांद की भी रौशनी पर गई है फिकी
सारे तारे  है सुबकते ऐसे जैसे
आज लगता मर गया है कोई तारा
झाडियों के बीच बैठा
एक कुत्ता रो रहा है तान छोडे
हाथ में कसके पकडकर
कमंडल दुध का
है डरा वह आठसाली छोकरा मजबूर सा
घर है उसका बांध के बिल्कुल किनारे
पर अकेला राह उसको काट खाये
सरसराती झुरमुटों से निकल कर
एक खरहा बैठ जाता है सडक पर
देख कर हलचल खींच जाते पैर बरबस
कांप जाती है उसकी रूह सर तक
दुध का बरतन सीने से लगाकर
तेज करके चाल पैरो को बढाता
भागता है घर की तरफ ,पर तभी
टुटता है आसमान से एक तरफ तारा
होगया भय से व्याकुल इस तरह
बैठ जाता है सडक पर कांपता
कुछ देर बैठा रोता रहा था
फिर जुटाता है हिम्मत और चल परता है
हाथ कि मुट्ठी है बांधी खुब कसकर
मन ही मन फिर कोसता है उस छण को
जब जरा तैश और बहन की बातों में फंसकर आ गया था दुध लाने धोती  कसकर
अब सोचता है बस इकबार घर पहुंच जाऊ
भाड में जायें पर दुध लाने  अब ना आऊ
दिख रहा है अब उसे लालटेन ओसारे का
जान में अब जान ऊसकी आ रही है
छाती भी कुछ कुछ निकलती जा रही है
जा रही है चेहरे से डर की निशानी
खांसते बाबा ने पुछा आ गये ?
डर तो नहीं लगा ?
रौब से कहता है
बाबा बच्चा थोडे ही हू ।

द्वारा
आदर्श पराशर

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